स्वाती सिंह
संसार के दुष्कर रेस्क्यू ऑपरेशन में शामिल यह मिशन विज्ञान, विश्वास, प्रार्थना, सरकार की इच्छा शक्ति के साथ-साथ टनल में फंसे उन मजदूरों के अदम्य साहस और जिजीविषा के लिए याद रखा जाएगा। उत्तरकाशी की सिलक्यारा सुरंग में फंसे 41 मजदूरों को 17 दिनों बाद आखिरकार सकुशल निकाल लिया गया है। डार्विन का लॉ सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट एक बार पुनः जीव जगत पर सटीक बैठता नजर आता है। ऐसा नहीं है कि जीवन में अचानक आई लाइफ चेटनिंग परिस्थितियों को सब पार ही कर जाते हैं और जीवटता पर प्रतिकूल परिस्थितियां हारती नजर आती हैं फिर भी उत्तरकाशी जैसे उदाहरण के मन मष्तिष्क में प्रभावी रूप से रहने चाहिए।
इस रेस्क्यू ऑपरेशन में कई अड़चनें आई। इम्पोर्टेड मशीन फेल हुई। बाहर से आए विशेषज्ञों की राय और प्रयास पर बार-बार प्रकृति की मार पड़ी। मगर इन सबके बीच जो बात बची रही और जिसने 41 फंसे मजदूरों को बचा कर रखा वह निश्चित तौर पर उनकी जीवित रखने की इच्छा शक्ति रही। ऑक्सीजन, पानी, भोजन, दवा आदि व्यवस्थाएं समय पर पहुंचाई जाती रहीं मगर कल्पना से ही मन सिहर जाता है कि ऑपरेशन की बार-बार असफलता को वो श्रमवीर कैसे अपनी ताकत में बदलते होंगे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी समेत पूरा देश उन श्रमवीरों की हिम्मत, धैर्य और विश्वास को प्रेरणा के रूप में देख रहा है। मानव इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा हुआ है जब प्रतिकूल और विषम परिस्थिति में भी मानव ने स्वयं को जीवित रखने का हर सम्भव असंभव प्रयास किया है लोगों और विजेता के रूप में उभर कर सामने आए हैं।
भारत ने इससे पहले रानीगंज (पश्चिम बंगाल) में कोयला खदान में फंसे मजदूरों का रेस्क्यू ऑपरेशन किया था जो तब तक भारत का सबसे बड़ा रेस्क्यू ऑपरेशन था। हिंदी माइनिंग इंजीनियर जसवंत सिंह गिल ने 1989 में पश्चिम बंगाल में रानीगंज कोयले की खान में फंसे 65 मजदूरों को बाहर निकालकर उनकी जान बचायी थी। करीब 104 फीट गहरी रानीगंज की कोयले की खान में उस दिन करीब 232 मजदूर काम कर रहे थे। रात में अचानक से खदान में पानी का रिसाव शुरू हो गया। जैसे-तैसे ट्रॉली की मदद से 161 मजदूरों को तो कोयले की खान से बाहर सुरक्षित निकाल लिया गया था लेकिन बाकी मजदूर अंदर ही फंसे रहे। उन्होंने फंसे मजदूरों को बाहर निकालने के लिए विशेष तरह का कैप्सूल बनाया। इसकी मदद से मजदूरों को बाहर लाया जा सका और उनकी जान बच गई थी। पल—पल भारी विपदाओं और नकारात्मक वातावरण में स्वयं को जिंदा रखने की कला महज चमत्कार तो नहीं ही कहा जा सकता है। ऐसे ही 2018 में थाईलैंड में फंसे बच्चे उदाहरण बन कर सामने आए थे जहां जीने की धुनकी ने उनको सकुशल बाहर निकाला था। नन्हें मासूम मौत को आंख में धूल झोंक कर सुरक्षित बाहर निकल आए थे। इस पूरी घटना पर छिछली नजर भी डालिये तो यह असंभव लगेगा। चंद लोगों ने तो ऐसी मिसाल कायम की है जिससे पूरी मानव-सभ्यता को सीखने की जरूरत है।
2008 में टेक्सास निवासी टूमैन डंकन चलती ट्रेन से नीचे गिर गए थे और दो टुकड़ों में कट गए थे। इनमें इनकी किडनी भी आधी कट गई थी। मगर इनके जीने की प्रबल इच्छा ने मौत से बाजी मारी और आश्चर्यजनक रूप से टूमैन ने खुद पुलिस को कॉल कर सहायता के लिए बुलाया। सामान्यतः ऐसी घटनाओं के बाद इंसान सबसे पहले उम्मीद छोड़ देता है और जिस जंग को शायद वो जीत सकता है, उसमें बिना लड़े हथियार डाल देता है। प्रतिकूल परिस्थितियों में डोरमेंट या निष्क्रिय अवस्था में बीज बेजान से पड़े रहते हैं। जैसे ही परिस्थिति अनुकूल होती है वो फलने-फूलने लगते है। मनुष्य भी स्वभावतः ऐसा ही होता है। विपरीत परिस्तिथियों में ऊर्जा को समेटे उसका सामना करता है और सकारात्मक समय आते ही लक्ष्य की ओर बढ़ चलता है। वैज्ञानिक तरीके से भी यह प्रमाणित है कि हम जैसा सोचते हैं वैसी ही घटनाएं हम अपने जीवन में आमंत्रित करते हैं। रोडा बर्न की विख्यात पुस्तक ‘द सीक्रेट’ भी दरअसल इसी मूल को समेटे है। सकारात्मक सोच आपकी जिजीविषा को पोषित करती है फिर आपके साथ सब अच्छा ही होता है। विपरीत परिस्थितियों में सकारात्मक बने रहना उस विकट परिस्थिति की सबसे बड़ी काट होती है। अपनी ऊर्जा को जीवटता में समाहित करके हम किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति से ना सिर्फ लड़ सकते हैं अपितु उससे बाहर भी आ सकते हैं।
ऐसा ही एक उदाहरण साल्वाडोर अल्वारेंगा का है जो समुद्र में 438 दिनों तक जिंदा रह कर वापस लौटे। साल भर से ज्यादा समय समुद्र में सर्वाइव करना कितना चुनौतीपूर्ण होगा इसकी कल्पना भी संभव नहीं है। एक मछुआरा जो अपने साथी के साथ मछली पकड़ने गया पर समुद्री तूफान में फंस कर रेडियो सिग्नल के संपर्क से दूर हो गया। मार्ग भटक कर घने समुद्र में भटकता रहा जहाँ जमीं का छोर दूर—दूर तक ओझल था। चार महीने तक कछुआ, समुद्री मछली आदि हाथ से जिंदा पकड़ कर उन्हें खाकर दोनों ने अपनी जान बचायी। पीने के लिए बारिश के पानी का इस्तेमाल किया। कई बार बारिश ना होने पर अपना मूत्र तक पीया मगर चार महीने बाद साथी ने ऐसे जिंदा रहना नामंजूर किया और भुखमरी ने उसे लील लिया। इसके बावजूद भी सल्वाडोर ने हिम्मत नहीं हारी और अकृष्ट जीवटता का परिचय दिया। आखिरकार मौत को घुटने टेकने पड़े और वह जीवित वापस लौट पाया।
सन् 1972 में एंडोज के पहाड़ों के बीच एक ऐसा हादसा हुआ था जिसमें जंदा बचे लोगों को उन बर्फीली पहाड़ियों में 72 दिनों तक बिना भोजन के रहना पड़ा था। इतिहास में ये दुर्घटना मिरेकल ऑफ एंडीज और एंडीज फ्लाइट डिसास्टर के रुप में प्रसिद्ध है। यह दर्दनाक हादसा 13 अक्टूबर 1972 को हुआ था और इसका शिकार उरुग्वे के ओल्ड क्रिश्चियन क्लब की रग्बी टीम हुई थी। 14 हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ रहा प्लेन सीधे एंटीज पर्वत से टकरा गया। एंटीज से टकराने के बाद फ्लाइट के ज्यादातर लोगों की मौत हो गई थी, सिर्फ 27 लोग जिंदा बचे थे। उन्हें भी बचने की कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही थी। ऐसे में रग्बी टीम के दो खिलाड़ियों नंदो पैराखे और रॉबर्ट कैनेसा ने हार नहीं मानी और अपने हौसले से न सिर्फ खुद को बचाया, बल्कि 14 अन्य लोगों को भी बचाने में सफलता हासिल की। एंडीज के पहाड़ों पर फंसे ज्यादातर लोग जहां मौत का इंतजार कर रहे थे, वहीं नंदी पैराडो और रॉबर्ट कैनेसा मदद तलाशने के लिए निकल पड़े। कमजोर होने के बावजूद इन लोगों ने गजब का साहस दिखाते हुए 12 दिनों तक ट्रैकिंग की और चिली के आबादी वाले क्षेत्र तक पहुंच गए जहां दोनों ने रेस्क्यू टीम को अपने साथियों की लोकेशन बतायी और सबको बचाया जा सका। निश्चय ही ऐसे लोगों ने अदम्य साहस का परिचय दिया। निराशा में डूब कर मृत्यु को अपना प्रारब्ध नहीं बनाया बल्कि जीवन की अंतिम श्वास तक जिंदादिल रहने की उत्कट अभिलाषा और तदानुसार व्यवहार भी किया। इसलिए वो जीवित बच पाये जिसमें अब सिलक्यारा सुरंग से बाहर निकले 41 कर्मवीर भी शामिल हो गये हैं।
देखती रह गई दुनिया
तमाम दुस्वारियों को धता बताते हुए कई लोगों और एजेंसियों ने उत्तराखंड में एक ध्वस्त सुरंग में फंसे 41 श्रमिकों को 400 घंटे की जद्दोजहद के बाद सुरक्षित निकाल लिया।
1- 12 नवंबर को सिल्क्यारा पोर्टल की तरफ से 205 और 260 मीटर के बीच सुरंग की छत ढह गई, जिससे 2 किलोमीटर के हिस्से में 41 श्रमिक फंस गए।
2- 13 नवंबर को एक पतला पक्षप डालकर फंसे हुए श्रमिकों के लिए सूखे मेवे, गुड और अन्य जरूरी वस्तुएं पहुंचाई गईं।
3- 14 नवंबर को सिलक्यारा पोर्टल में 60 मीटर की बचाव सुरंग बनाने को क्षैतिज ड्रिलिंग करनी थी। ऑगर मशीन की मदद से मलबे से होकर एक मीटर व्यास के स्टील पाइप डाले गए, अगले सप्ताह बेहतर ड्रिलिंग उपकरण लाए गए।
4- 21 नवंबर को ताजा पका हुआ भोजन, फल, दवाइयां और अन्य जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति के लिए 150 मिमी व्यास का एक पाइप डाला गया एक कैमरा भेजा गया जिसने अंदर फंसे श्रमिकों की पहली तस्वीरें दिखाई।
5- लगभग 12 मीटर की ड्रिलिंग बची थी कि 22 नवंबर को ऑगर मशीन रोकनी पड़ी क्योंकि उसके सामने एक लोहे का गर्डर आ गया जिससे पाइप को आगे बढ़ाना असंभव हो गया। गर्डर को हटाने के लिए गैस कटर का इस्तेमाल किया गया और 23 नवंबर की रात तक उसे साफ कर लिया गया। लेकिन मलबे में खुदाई रोकनी पड़ी। दरअसल, विशेषज्ञों ने वर्टिकल और मैन्युअल ड्रिलिंग सहित अन्य विकल्प तलाशने शुरू कर दिए थे।
6- रेल विकास निगम लिमिटेड ने वर्टिकल ड्रिलिंग (8 इंच व्यास) भी शुरू की। 28 नवंबर तक 72 मीटर ड्रिलिंग पूरी हो गई। इस बीच टीएचडीसी इंडिया लिमिटेड ने बडकोट की ओर से ब्लास्ट विधि का उपयोग करके हॉरिजंटल ड्रिलिंग शुरू कर दी।
7- 26 नवंबर को सतलज जल विद्युत निगम लिमिटेड के कर्मचारियों ने सिलक्यारा की ओर से करीब 300 मीटर की दूरी पर सुरंग के ऊपर से वर्टिकल ड्रिलिंग (1 मीटर व्यास) शुरू की, 28 नवंबर तक वांछित गहराई का आधा 45 मीटर तक ड्रिल किया जा चुका था।
8- 27 नवंबर को रेट-होल खनिकों को मुख्य बचाव सुरंग के जरिए भेजा गया। वे रेंगते हुए ऑगर के रोटर को काटने के लिए पहुंचे जो लोहे के जालीकार गर्डर में उलझ गया था। 28 नवबर की दोपहर तक केवल दो मीटर की खुदाई बची थी, जिसे उन्होंने शाम तक पूरा कर लिया।
• पीएमओ पूर्व सलाहकार भास्कर खुल्बे मौके पर बने रहे, प्रमुख सचिव पी.के. मिश्र ने भी वहां का जायजा लिया।
• शीर्ष निकाय होने के नाते राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने सभी मोर्चों पर बचाव अभियान की निगरानी की।
• एनडीआरएफ ने उत्तराखंड एसडीआरएफ के साथ मिलकर जमीनी सहायता प्रदान की।
• राष्ट्रीय राजमार्ग और अवसंरचना विकास निगम लिमिटेड ने मुख्य बचाव किया।
सुरंग की ड्रिलिंग का निरीक्षण किया
• भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण ने आसपास के इलाके की मजबूती का आकलन किया।
• सीमा सड़क संगठन ने भारी मशीनरी के लिए संपर्क सड़कें बनाई
• सेना, वायु सेना, रेलवे, ओएनजीसी और उत्तराखंड सरकार ने साजो-सामान संबंधी सहायता दी।
• सुरंग में बचाव कार्यों के लिए विख्यात ऑस्ट्रेलियाई विशेषज्ञ आर्नाल्ड डिक्स साइट
पर मौजूद थे।
• 600 मौके पर बचाव कार्य में लोग लगे थे।
• 60 मीटर चौड़ाई में था मलबा जिसे छेदकर श्रमिकों तक पहुंचना था।