—  बृजनन्दन राजू

आज की राजनीति में अधिकांश नेता जहां स्वार्थ के वशीभूत होकर निजी महत्वाकाक्षाओं के लिए अपने कद और पद का दुरूपयोग करते हैं उन्हें जनता भुला देती है लेकिन जो नेता राजनीति के आदर्श गुणों को अपने जीवन में उतारते हैं उसे युगों तक लोग भुला नहीं पाते। ऐसा ही नाम पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न श्रदेय अटल बिहारी बाजपेई का है। उनकी कथनी करनी में कोई अंतर नहीं था। वह जब राजनीति में गये तो लोकप्रियता के शिखर पर पहुंचे और हमेशा चर्चा में ही रहे। वहीं राजनीति में रहकर आलोचनाओं की परवाह उन्होंने कभी की ही नहीं।

अटल बिहारी बाजपेई का जन्म 25 दिसम्बर 1924 को ग्वालियर में हुआ था। पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी ग्वालियर में अध्यापन कार्य तो करते ही थे इसके अतिरिक्त वे हिन्दी व ब्रज भाषा के सिद्धहस्त कवि भी थे। पिता का गुण काव्य के रूप अटल जी को प्राप्त हुए। अटल जी की बीए की शिक्षा ग्वालियर में हुई। छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने। संघ की शाखा से जुड़कर विद्यार्थी साधारण से असाधारण कैसे बन जाता है। अटल जी इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं कि कैसे एक व्यक्ति संघ के संपर्क में आकर प्रचारक पत्रकार नेता और फिर प्रधानमंत्री बना। कानपुर के डीएवी कॉलेज से राजनीति शास्त्र में एम.ए.करने के बाद उन्होंने अपने पिताजी के साथ-साथ कानपुर में ही एलएलबी की पढ़ाई भी की।

कानपुर में पढ़ाई के दौरान ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रान्त प्रचारक भाऊराव देवरस ने उन्हें 1946 में कानपुर से बुलाकर राष्ट्रधर्म का काम देखने को कहा। वे वहां से आये और राष्ट्रधर्म पत्रिका के संपादन का काम देखने लगे। 31 दिसम्बर 1947 को राष्ट्रधर्म का पहला अंक आया। राष्ट्रधर्म के प्रथम अंक का साहित्य जगत में स्वागत हुआ। राष्ट्रधर्म ने शीघ्र ही एक अच्छे मासिक पत्रिका के रूप में अपनी पहचान बना ली। उनकी सम्पादन कुशलता और पत्र की सफलता को देखकर साप्ताहिक समाचार पत्र शुरू करने की योजना बनी और पांचजन्य का प्रकाशन करने का फैसला लिया गया। शुरू में राष्ट्रधर्म की 500 प्रतियां छपती थी।
तीसरा अंक आते- आते 12 हजार प्रति हो गयी। लखनऊ में वे राष्ट्रधर्म, के प्रथम संपादक नियुक्त किए गए थे। उनके परिश्रम और कुशल संपादन से राष्ट्रधर्म ने कुछ ही समय में अपना राष्ट्रीय स्वरूप बना लिया। लखनऊ के साहित्यकारों में अपनी पहचान बनाने में उन्हें अधिक समय नहीं लगा।
उन्होंने राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, स्वदेश और वीर अर्जुन का संपादन किया। राष्ट्रधर्म के प्रथम अंक के मुखपृष्ठ पर ‘हिन्दू तन मन हिन्दू जीवन रग रग हिन्दू मेरा परिचय’ कविता खूब चर्चित हुई। जिस दिन अखबार फाइनल होता था उस दिन सुबह 09 बजे से रात नौ बजे तक अनवरत अटल जी काम करते थे। अटल जी घटनाओं की स्वयं कवरेज करते थे। स्वयं संपादन का काम भी अटल जी खुद करते थे। अखबार छपने के बाद अखबारों का बंडल साईकिल पर लादकर चारबाग रेलवे स्टेशन पर बेचने भी खुद जाते थे। उन्होंने लम्बे समय तक राष्ट्रधर्म, पाञ्चजन्य, स्वदेश और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। उस समय राष्ट्रधर्म और पांचजन्य दोनों पत्रों को कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ता था। अटल जी लखनऊ से 1991, 1996, 1998, 1999 व 2004 में लगातार पांच बार लोकसभा चुनाव जीते।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक और पत्रकार के बाद देश के प्रधानमंत्री बनने वाले अटल बिहारी वाजपेयी ने आजीवन राष्ट्रधर्म का पालन किया। राजनीति में शुचिता व समन्वय के वह पर्याय थे। राजनीति उनके लिए साधन नहीं साध्य थी। ऐन केन प्रकारेण सत्ता प्राप्ति के मार्ग के वे प्रखर विरोधी थे। राजनीति में खरीद फरोख्त के वे सख्त खिलाफ थे।
अटल बिहारी वाजपेयी ने केवल एक वोट कम होने के कारण प्रधानमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इस घटना के बाद एक समाचार पत्र के संपादक ने उनसे कहा कि आप प्रधानमंत्री होते हुए भी एक वोट का प्रबंध नहीं कर पाये। अटल जी ने हंसते हुए कहा कि मण्डी लगी थी। मण्डी में माल भी था। माल बिकाऊ भी था, लेकिन कोई खरीददार नहीं था। वाजपेयी ने कहा कि लोकतंत्र को बचाने के लिए यदि हमारी सरकार एक वोट से गिर भी जाती है तो वह हमें मंजूर है लेकिन वोट खरीदकर मैं प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बना रहूं यह मुझे किसी भी कीमत पर मंजूर नहीं है।
सत्ता के लिए कुछ भी करने को वह तैयार नहीं हुए। वाजपेयी को जनता पर अटल विश्वास था कि हम फिर जीतकर आयेंगे और भारी बहुमत के साथ आयेंगे। वही हुआ और अटल जी फिर से प्रधानमंत्री बने। उन्होंने पहली बार गठबंधन सरकार बनायी और 23 अलग-अलग राजनीतिक दलों के साथ बिना किसी रूकावट के कार्यकाल पूरा किया।
प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से पूरे देश के गांवों को जोड़ने का काम किया। विविध क्षेत्रों में विकास का कीर्तिमान स्थापित किया। अनुच्छेद 370 हटाने के वह पक्षधर थे लेकिन संसद में संख्याबल कम होने के कारण वह नहीं कर सके। जम्मू कश्मीर के विभाजन का प्रस्ताव अटल जी के कार्यकाल में ही तैयार हुआ था। वहीं राम मंदिर मसले को सुलझाने के लिए उनके कार्यकाल में तमाम पहल हुई लेकिन सफलता नहीं मिली।
इसी तरह अटल जब लोकसभा में विपक्ष के नेता थे तो नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। जेनेवा में मानवाधिकार हनन को लेकर सम्मेलन में पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो भारत के विरूद्ध निन्दा प्रस्ताव पारित कराने में जुटी थी। भारतीय प्रतिनिधिमण्डल को किसके नेतृत्व में वहां भेजा जाए जो भुट्टो को मात दे सके। ऐसे समय में लोगों ने अटल जी का नाम सुझाया। अटल जी तब कलकत्ता में थे। प्रधानमंत्री का दूत भेजा गया। अटल जी तुरन्त दिल्ली आये। संसदीय दल के सदस्यों को बुलाकर उनसे राय मांगी। सदस्यों ने कहा कि जीत गये तो श्रेय सरकार को हार गये तो ठीकरा अटल के सिर। अटल जी बोले नहीं मैं जाऊंगा। यह राष्ट्र के स्वाभिमान का मामला है। उसी रात वे जेनेवा के लिए रवाना हो गये। वहां पर चीन,ईरान,सऊदी अरब और अमेरिका गुट को उनके मानवाधिकार हनन के काले कारनामों का चिट्ठा दिखाकर चेतावनी दी कि अगर पाकिस्तान का समर्थन करने का दुस्साहस हुआ तो तुम्हें आइना दिखाते हमें देर नहीं लगेगी। दांव ऐसा सटीक पड़ा कि पाकिस्तान की हार हुई। वाजपेई विजय दुन्दुभी बजाते भारत आये। अटल के राजनीतिक जीवन पर नजर डालें तो कई ऐसे अवसर आये जिस समय वह विचलित नहीं हुए।
पण्डित श्यामा प्रसाद मुखर्जी का निधन रहा हो या पण्डित दीन दयाल उपाध्याय का असमय जाना रहा हो या फिर जनता पार्टी का विघटन रहा हो। अटल ने कार्यकर्ताओं का मनोबल बनाये रखने में कामयाब रहे और पार्टी को ऊंचाई पर ले जाने के लिए प्राण-पण से लगे रहे। यह सर्वविदित है कि नरसिम्हा राव के कार्यकाल में पोखरण में दूसरा परमाणु परीक्षण होना था। सब कुछ निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार चल रहा था।
किन्तु वे परीक्षण नहीं करा सके। अमेरिका ने अपने प्रभाव से रूकवा दिया था। प्रधानमंत्री बनने के बाद डा. अब्दुल कलाम उनके मिलने गये और परमाणु परीक्षण की अनुमति मांगी।
अटल ने कहा ठीक है तैयारी करो। ऐसी सहर्ष अनुमति से अब्दुल कलाम की आंखों से आंसू आ गये, तैयारी शुरू हो गयी। जिस दिन परीक्षण होना था उस दिन बाजपेई ने विपक्ष की नेता सोनिया गांधी को और राज्यसभा में नेता मनमोहन सिंह को चाय पर बुला लिया। सफल परीक्षण की सबसे पहले सूचना प्रधानमंत्री को दी गयी प्रधानमंत्री ने सबसे पहले मुख्य विपक्षी पार्टी को सूचना दी। पूरा विश्व आश्चर्य चकित। अमेरिका ने प्रतिबंध की धमकी दी। अटल ने कहा कि आपको जो करना है करने के लिए स्वतंत्र हैं। वास्तव में अटल राजनीति में शुचिता के भी पर्याय थे। उनकी वक्तृत्व कला का तो पूरा विश्व लोहा मानता था। बाबू जगजीवन राम जब रेलमंत्री थी उस समय एक रेल
दुर्घटना हो गयी थी। सदन में चुटकी लेते हुए अटल जी ने कहा कि  ‘लोग अब न जग न जीवन’ बस राम के सहारे रेल यात्रा करते हैं। इस चुटकी पर जगजीवन राम भी मुस्कुराये।
2004 के चुनाव से पहले अटल बिहारी वाजपेयी अयोध्या में सरयू के रेल पुल का लोकार्पण करने गये थे। मैं भी कालेज से अपने मित्रों के साथ उन्हें सुनने के लिए फैजाबाद हवाई पट्टी पर पहुंचाा था। प्रत्यक्ष अटल जी को देखने और सुनने का मुझे पहला सौभाग्य मिला था। रेल पुल का उद्घाटन करने के बाद वह रेल से ही फैजाबाद गये। हलांकि अयोध्या नगर में न जाने पर संतों ने उनका विरोध किया। इसके बाद फैजाबाद हवाई पट्टी पर विशाल जनसभा का आयोजन किया गया था।
सभा में पहुंचते ही अटल जी ने कहा कि सोनिया गांधी ने कहा कि अटल अपनी बात पर अटल नहीं रहते। हमने कहा कि मैडम सोनिया हम अटल के साथ-साथ बिहारी भी हैं। पूरा मैदान ठहाकों से गूंज उठा।
वह विदेशों से अच्छे संबंध चाहते थे। इसलिए उन्होंने लाहौर बस सेवा की शुरूआत की थी। पाक ने हरकत की, इसका खामियाजा भी उसे भुगतना पड़ा। प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अटल बिहारी वाजपेयी को पाक के साथ शांति की कोशिशों के बदले वाजपेयी को एक के बाद संकटों का सामना करना पड़ा। कारगिल का युद्ध फिर, कंधार हाइजैक और फिर संसद पर हमला। लेकिन तमाम चुनौतियां उनके मनोबल को छू नहीं सकी। हर बार उन्होंने असाधारण नेतृत्व का परिचय दिया और संकट से देश को बाहर निकाला।
भारतीय सीमा में घुसपैठ के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने फोन पर पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को लताड़ा कि एक तरफ आप हमारा लाहौर में गर्मजोशी से स्वागत करते हैं दूसरी तरफ हमारी सीमा में घुसपैठ कराते हैं यह आपने ठीक नहीं किया। इसके परिणाम आपको भुगतने पड़ेंगे। फिर क्या था सेना ने हमले शुरू कर दिये। सारा देश युद्ध का परिणाम जानने को उत्सुक था क्योंकि पाक सैनिक पहले से ऊंची पहाड़ियों पर मोर्चा जमा चुके थे उनको खाली कराना आसान नहीं था। भारत के वीर सैनिकों ने दुश्मन सेना को उल्टे पांव भागने के लिए मजबूर कर दिया।
कारगिल युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीज भी जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए 13 जून 1999 को खुद युद्ध भूमि में पहुंच गये थे। ऐसे में उनको निशाना बनाने के लिए पाकिस्तान की ओर से जमकर फायरिंग हुई। इसके बावजूद प्रधानमंत्री रणभूमि के अंतिम हिस्से तक पहुंचे। राष्टीय और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव में भी वाजपेयी दृढ़ रहे राष्ट्र के स्वाभिमान के साथ समझौता नहीं किया।
यही कारण रहा कि कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने अटल जी को पाक प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ वार्ता के लिए बुलाया। अटल जी ने अमेरिका जाने से साफ इनकार कर दिया। उस समय यह सामान्य बात नहीं थी। अटल जी ने कहा कि हम पाकिस्तानी सेना को पाक सीमा में वापस देखना चाहते हैं। इसके पहले हमें कोई वार्ता मंजूर नहीं है।

कारगिल युद्ध के दौरान अमेरिका ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए भारत को सूचित किया कि पाक परमाणु हमला कर सकता है। अटल जी ने स्पष्ट कहा था कि अगर पाक ने परमाणु हमला करने की जुर्रत की तो पाकिस्तान विश्व के नक्शे से गायब हो जायेगा। ऐसे थे अपने अटल बिहारी वाजपेई। कारगिल के युद्ध में मिली ऐतिहासिक जीत का श्रेय भी उन्हें ही जाता है। वह दर्जनभर भाषाओं के भी ज्ञाता थे। वह दलगत राजनीति से ऊपर थे। यही कारण था कि विरोधी भी उनके कायल थे। आज वह हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनका कवि ह्रदय आत्मीयता पूर्ण जीवन का हर पल लोगों को हमेशा- हमेशा के लिए प्रेरणा देता रहेगा।
(लेेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)