(जयंती पर विशेष)

                                     -अवनीश त्यागी-

“ एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है। “ जैसी गजलें गाकर आपातकाल में लोकतंत्र सेनानियों में जोश भरने वाले दुष्यंत कुमार के प्रति सरकारों की उपेक्षित रवैया ने खुद दुश्यंत की आत्मा को ठंडा कर दिया है। उनकी गजलें भले ही आज कालजयी हैं। आज भी लोग उससे प्रेरणा पाते हैं, लेकिन किसी सरकार से वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वास्तव में दुष्यंत कुमार हकदार थे।
आपातकाल में जब भारतीय लोकतंत्र को तत्कालीन तानाशाही सरकार कुचलकर समाप्त करने पर आमादा थी तब दुष्यंत कुमार की ग़ज़लें तानाशाहों के मंसूबों को स्वाहा करने वाली मशालें सिद्ध हुई थी। गरीब, पीड़ित व उपेक्षित आम आदमी के दर्द एवं पीड़ा को अपनी कलम से उकेरकर आंदोलनकारियों का हथियार बना देने वाले दुष्यंत अपनी रचनाधर्मिता के बल पर भले ही अमर हो गए। चाहे जमाना लाख बदले, लेकिन दुष्यंत कुमार को याद किये बिना गजलों की दुनिया पूरी नहीं होती। यदि आम आदमी से जुड़कर भावों में उसकी पीड़ा को कहना है तो दुष्यंत को याद करना ही पड़ता है। इसके बावजूद वे अब तक वे सम्मान नहीं पा पाये, जिसके वे हकदार थे। सरकारों की उपेक्षा की चादरों में लिपटी उनकी कविताएं तो लोगों के दिलों पर आज भी राज कर रही हैं, लेकिन वे कह रही हैं कि आज दुष्यंत को उसका सम्मान दिलाने के लिए लड़ने का समय आ गया है।
सवाल इस बात का है कि जब सरकारें लोकतंत्र सेनानियों के सम्मान में पलक पावड़े बिछा रही है। अनेक लोगों को पद्म विभूषण, पद्दमभूषण या पद्मश्री के सम्मानों से नवाजा जा चुका है। ऐसे में दुष्यंत कुमार की उपेक्षा क्यों? उनकी कविताओं ने तो आपातकाल की विभिषिका के समय युवाओं में वह काम किया, जो बड़े-बड़े हथियार नहीं कर सकते। युवाओं की भावनाओं को झकझोर कर दुष्यंत ने लोगों को प्रेरणा दी। अपनी कविताओं के माध्यम से ही उन्होंने लोगों को निराश नहीं होने दिया। सड़कों पर उतरकर संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। वह आज पद्म विभूषण सम्मान नहीं पा सका।
30 दिसंबर को क्रांतिकारी रचनाकार दुष्यंत कुमार की पुण्यतिथि है। जाहिर है जगह-जगह उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए कार्यक्रम भी होंगे। कुछ देर तक उनकी यादों में लोग आंसू भी बहाएंगे, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात। परंतु एक बात मन को थोड़ा जरूर कचोटती है कि दुष्यंत कुमार को हम उतना सम्मान नहीं दे सके, जिसके वे सच्चे हकदार थे। उनके असंख्य प्रशंसकों को मलाल है कि आम जन की पीड़ा और आवाज को पूरी शिद्दत से उकेरकर जनता को जगाने वाले रचनाकार को देश के सर्वोच्च पद्म सम्मान से ही नहीं साहित्य क्षेत्र में दिये जाने वाले पुरस्कारों से भी वंचित क्यूं रखा गया?
यह सवाल इसलिए भी गंभीर बनता है कि दुष्यंत कुमार का महत्व उनके बगावती तेवरों से ही नहीं बल्कि साहित्य के क्षेत्र में किए अनूठे प्रयोगों से भी उनको विशेष बनाता है। हिंदी ग़ज़लों के जनक दुष्यंत कुमार ही थे। आम आदमी की सरल सहज भाषा में अपनी रचनाएं रचने का साहस भी दुष्यंत को सबसे अलग बनाता है। उन्होंने ग़ज़लों को इश्क, शराब व हुस्न की बंदिशों से निकाल कर सामान्य जन की मुश्किलों से जोड़ा। साहित्य को व्यवस्था में बदलाव का जरिया बनाने का काम भी किया।
सत्तर के दशक में जब देश का युवा, ग़रीबी, मंहगाई, बेकारी और सत्ता के मनमानेपन से त्रस्त हो निराशा के भंवर में घिरता जा रहा था तब दुष्यंत कुमार ने अपनी कलम का कमाल दिखाया और देश को एक नई दिशा देने काम किया। कैसे आकाश में सुराख़ हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो। जेपी आंदोलन में दुष्यंत कुमार युवाओं के दिल और जुबां पर बसे थे। उनकी पुस्तक ‘साये में धूप’ आंदोलनकारियों के लिए पवित्र प्रेरक ग्रंथ बन गई थी ।सर कारी नौकरी में रहते हुए भी व्यवस्था की खामियां गिनाने और परिवर्तन का बिगुल बजाने की हिम्मत जुटाने वाले दुष्यंत पर जब सत्ताधारी दबाव बनाने लगे तो उन्होंने अपना तेवर बरकरार रखा।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर जिले के राजपुर नवादा गांव 30 सितंबर 1931 को जन्मे दुष्यंत कुमार की कविताओं में गांव, गली, गरीब का दर्द झलकता है। अपनी कविताओं को धार देते हुए अल्प समय में ही वे ताज भोपाली जैसे लोगों को पीछे छोड़ चुके थे। 30 दिसंबर 1975 को भगवान को प्यारे हो गये, लेकिन उनकी रचनाओं ने उन्हें आम जनमानस के बीच अमर कर दिया। युवाओं के लिए वे प्रेरणाश्रोत बन गये। दुष्यंत की नजर हमेशा उस युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी पर टीकी रहती थी। उनकी रचनाओं में अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के खिलाफ एक आवाज झलकती थी। जो उस समय लोकतंत्र सेनानियों के लिए एक सशस्त्र हथियार का काम किया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं वर्तमान में भाजपा के प्रदेश प्रवक्ता हैं।)